PANKAJ KUSHWAHA
रोज़सुबह आ कर बड़ेही मन से ईटोको संजोने लग जाता है,जैसे खुद का आशियानासजा रहा हो | लेकिनवो इतना खुशकिस्मत कहा की उसेभी कोई पक्की चत मिलसके | लगातार ईट परईट रखता तो है,लेकिन आँखों में
एक आसलिए की एक दिनमैं भी बनाऊंगा अपना खुद का घर,जहा सारा परिवार बसेगा खुशिओ के साथ|ख़ुशी जब बचा स्कूल से खुदके घर लोटेगा, ख़ुशी जब बेटीखुद के घर सेविदा होगी, ख़ुशी जब पूरादिन मजदूरी के बादखुद के घर मेंसुस्ता सकेगा, और ख़ुशीजब अर्थी भी निकलेगी तो खुद के घर से |आँखों में सपने बुन ही रहा होता है की उसकी औरत का चेहरा सामने आ जाता है जो की पेट से है| डॉक्टर बाबु ने कहा था यह करना, वो करना, ऐसा मत करना- वैसा मत करना, लेकिन कौन जाने की सूरज की चिलचिलाती धुप में सर पर मिटटी चुने का भोजा लिए, चेहरे पर आई पसीने की बुँदे, डॉक्टर बाबु की किसी बात को कहाँ ठहरने देती है| गढ़ा गढ़ाकर तपती ज़मीन पर नंगे पांव कदम बढ़ा रही है कि पेट में पड़े राजा बाबु को कहीं चोट न लग जाये|
इधर वो (उसका आदमी )मज़बूरी से पड़ी चिंता कि बलवतो को, मुस्कान के बादलो में छुपा कर उसे द्र्रीनता बनाने कि कोशिश तो करता है, लेकिन किसे पता कि टूट तो वो खुद ही गया था उस दिन, जब गर्ब के अगले दिन ही उसकी औरत मलबे कि खाक छानने उसके पीछे - पीछे चल दी थी | मन तो उसका भी था कि बिठाकर उसकी देखभाल करे, लेकिन देखभाल से पेट कहाँ भरता है जो इसी कशमकश में बैठा सोच रहा होता है, तभी एक आवाज सुनाई दी, "बूढ़े हाथो में दम नहीं है, तो रोज़ क्यों आ जाता है हराम कि कमाई खाने" शायद वो बुढा कोई और नहीं, बल्कि इसका बाप है, तभी तो गलियां वहां पढ़ रही है और दिल बेचारे का यहाँ कचोट रहा है | शर्म और गुस्से का भाव सीधा -सीधा उसके चेहरे पर नज़र आ रहा है, क्योंकि यह बुढा वाही बाप है, जिसकी सेवा करने का सपना इसने बचपन से ही देखा था, लेकिन पेट में लगी आग में, कब यह सेवा - भाव स्वः हो गया, किसी को पता नहीं |
इसीबीच मन में एक बातने करवट ली किशाम कि रोटी तो आजथाली में प्याज़ के साथसज जाएगी, लेकिन आज किरत सर छुपाने के लिए छत कहाँ से आएगी | छत पूरा दिन मेहनत करके सुस्ताने के लिए, छत - पेट में बचा लिए औरत कि सुरक्षा के लिए, छत - थकान में पड़े बूढ़े बाप की कुछ सेवा के लिए |
रोज़नए नए घर बनताहै, जिसकी ईंटे, बाप मजदूरी के कंधोपर उठाकर लता है औरऔरत बदकिस्मती की ठोकर खाते हुए सिर पर रखकर| इसके बाद कहीं जाकर आशियाना बनता है ....लेकिनउसका नहीं, किसी और का| अपना खून - पसीना , बाप का दर्द, और की मज़बूरी, बचो का भविष्यसब डाल देता है इंटोके बीच, केवल इसलिए की कोईआएगा और सजा देगा खुशिओ से नएघर को | लेकिन गरीबी से मरेदिल के किसी अँधेरे कोने में, कभी कभी उसकी चाहत भी जगउठती है की "अपनाभी आशियाना हो "
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