कब रुकेगा यह सिलसिला ? क्या आप करेंगे एक छोटी सी शुरुआत ?
नम्बरों की खातिर दे दी जान, फेल होने पर छात्र ने दी जान, परीक्षा की टेंशन ने ली छात्र की जान... ऐसे समाचार अकसर पढ़ने को मिल जाते हैं। अभिभावक अपने मासूम बच्चों
से अत्यधिक उम्मीद रखने लगे हैं, उम्मीद पूरी न होते देख अनेक मासूम मौत की नींद सो जाते हैं। क्या इस पर रोक लगाने के प्रयास नहीं करने चाहिए ? थ्री इडियट, फालतू जैसी फिल्में देखने के बाद फिल्म की तारीफ तो की जाती है परन्तु इस फिल्मों द्वारा किए गए प्रयास पर ध्यान ही नहीं दिया जाता। छात्र छात्राऐं डिवीजन और नम्बरों की दौड़ में अपना जीवन भूल चुके हैं। आज कालेजो में पास होने और भीड़ में रेस के घोड़े की तरह दौड़ने की ट्रेनिंग दी जाती है।
अभिभावक अपने बच्चों को इंजीनियर, डाक्टर बनाने के सपने देखते हैं। परन्तु एक सच यह भी है कि अगर सभी इंजीनियर, डाक्टर बन गए तो दुनिया कैसे चलेगी। अवश्य ही कुछ लेखक, दुकानदार, राजनीतिज्ञ, शिक्षक आदि बनेंगे। फिर क्यों अभिभावक नम्बरों की अंधी दौड़ में अपने बच्चों को दौड़ाते है। कुछ बच्चे अभिभावकों की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर पाते और मौत को गले लगा लेते हैं। प्रति वर्ष अनेक मासूम मात्र परीक्षा के डर, कम नम्बर आने और फेल हो जाने के कारण आत्महत्या कर लेते हैं।
अकसर कहते देखा गया है कि काश हम अपने बच्चे पर इतना दबाव न बनाते तो, आज वह जिन्दा होता। यह देखकर लोग बातें तो बनाते हैं, लेकिन अपने अंदी बदलाव कोर्इ नहीं करना चाहता।
बदलाव होना जरूरी है। मासूमों की हो रहीं मौतों को रोकना ही होगा। बदलाव जरूर होगा, जिस दिन दूसरों में नहीं बदलाव खुद में लाऐंगे। अगर बदलाव लाना है तो मुहल्ले, शहर या देशवासियों में बदलाव लाने के बारे में सोचने से अच्छा खुद को बदलना बेहतर होगा। तो क्या आप करेंगे एक छोटी सी शुरूआत ?

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