कभी असीम त्रिवेदी, सन ऑफ़ सरदार तो कभी सिगरेट, कभी स्टंट कभी इस्लाम का मजाक बनाया तो कभी हिंदुत्व का। सबके लिए सजा मिलेगी और सबका विरोध होगा। अब तो हद ये कि एक संतुलित तर्कपूर्ण फेसबुक कमेन्ट के लिए भी विरोध और सजा! यह लोकतंत्र है? मंत्रियों/ नेताओं को एक दूसरे पर घटिया और हास्यास्पद टिप्पणियां करने से फुर्सत नहीं, अपराध, भ्रष्टाचार, मंहगाई को मात्र चुनावी मुद्दों की तरह देखा जाता है- ऐसे में अगर आम आदमी एक सोशल साईट पर उचित कमेन्ट करता है तो उसे पुलिस पकड़ ले जाती है-यह लोकतंत्र का मज़ाक ही नहीं बल्कि अब तो अक्सर ऐसा लगने लगा है कि यह तानाशाही की शुरुआत है।
बाला साहेब (ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति दे) हमेशा विवादास्पद बयान देते रहे, कभी कोई समुदाय कैंसर कहा गया तो कभी अमुक एक्टर गद्दार हो गया। तब तो किसी ने बालासाहेब को गिरफ्तार नहीं किया? सभी लोग ‘सामना’ में लिखे गए उत्तेजक और कई बार मूर्खतापूर्ण विचारों को भी गंभीरता से पढ़ते रहे या पढने का नाटक करते रहे? क्यों? क्योंकि सभी को भय था कि कुछ कहा तो शिव सैनिक दंगा मचा देंगे, मारपीट कर देंगे? और सरकार, ज़ाहिर है कुछ भी नहीं कर पायेगी, क्योंकि वह तो इन तथाकथित टाइगर से भी कमज़ोर है?
यह तो अभिव्यक्ति की आज़ादी नहीं होती, न ही लोकतंत्र ऐसा होता है ,न ही महान नेता ऐसे होते हैं कि जिनके जीते जी लोग उनके डर से चुप रहे और उनके मरते ही दंगे के डर से लोगों को चुप रहने पर मजबूर कर दिया जाए। सरकार तो सरकार, तमाम तरह की समितियों, संगठनों और संस्थाओं ने चैन से सांस लेना भी दूभर कर दिया है। हर नयी फिल्म, नाटक या उपन्यास को लेकर लोगों/ समुदायों की संवेदनाएं आहत होने लगी हैं। यानी अब आप की कल्पना शक्ति पर भी लगाम लगाने की कोशिश है, कि कहीं आप मज़ाक में भी वो न सोच लें जो अमुक समाज के लिए संवेदनशील मुद्दा हो सकता है!
एक विद्वान् ने कहा था कि अगर किसी समाज का सेन्स ऑफ़ ह्यूमर ख़त्म हो रहा हो तो यह उसके गंभीर पतन की शरुआत समझी जा सकती है। हमारे यहाँ तो सेन्स ऑफ़ ह्यूमर न सिर्फ ख़त्म हो रहा है बल्कि राजनेता इसे विकृत भी करते जा रहे हैं। शाहीन और उसकी सहेली को हिरासत में लेना यह भी दर्शाता है कि हमारे तर्क और बौद्धिकता की धार भी भोथरी पड़ती जा रही है। सच तो यह है कि बतौर राजनीतिक पार्टी शिवसेना का कभी कोई गंभीर एजेंडा या विचारधारा नहीं रही . वह हमेशा बाला साहेब के सनकी विचारों का अंधाधुंध अनुकरण करती रही। यह हमारे समाज की, बतौर समाज हमारे भाग्य की विडम्बना है कि बालासाहेब के अतार्किक मगर कर्णप्रिय वचनों का मराठी मध्य वर्ग ने कभी विरोध नहीं किया। विरोध हुआ भी तो उसे मार पीट कर चुप करा दिया गया।
सच यह है कि बालासाहेब के करीबी लोगों को छोड़ कर उनको प्रेम व उन पर श्रद्धा व्यक्त करने वाले लगभग सभी लोग उनके भय से ऐसा करते थे, उनके प्रति किसी स्नेह के कारण नहीं। शाहीन ने सही लिखा है, इज्ज़त कमाई जाती है डर से नहीं करवाई जाती। डर से तो सभी हिटलर की भी इज्ज़त करते थे। क्या हमारे समाज में अब इतनी ताकत भी नहीं रही कि वह सच को जस का तस स्वीकार कर ले या इतना बड़प्पन भी नहीं कि मनोरंजन के माध्यमों में मज़ाक की तरह पेश की गयी रचनात्मकता का आनंद उठा सके?
यह देश और यह संस्कृति तब से जीवित है और संवर्धित हुई है जब समय की भी शुरुआत हुई थी। इसका तथाकथित तौर पर ठेका लेने वालों को इसके बड़प्पन का तो कम से कम लिहाज़ करना चाहिए।हम एक लोकतंत्र हैं। यहाँ सभी को अपने विचार रखने की आज़ादी है। कृपया आम जनता के धैर्य की परीक्षा न लें। कम से कम सांस तो लेने दें। जिन्हें खुद अपनी संस्कृति -समाज की परंपरा का शऊर नहीं है वह तो यह न बताएं कि सांस लेने का , पढने और लिखने का यहाँ तक कि सोचने का कौन सा तरीका सही है कौन सा गलत।
Source-dainikbhaskar
No comments:
Post a Comment